भारत में वैदिक युग से आज तक समय समय पर भाषाओं में आमूल परिवर्तन होते रहे हैं। भाषा परिवर्तन के कारण भी विभिन्न प्राचीन वस्तुओं के नये नाम रख लिये जाते हैं। अस्तु, यदि वर्तमान किसी वस्तु के ऐतिहासिक विकास क्रम को समझना है तो सतर्कतापूर्वक उपरोक्त दोनो सम्भावनाओं को ध्यान में रखते हुए छानबीन करनी होगी।
उन्नीसवीं शताब्दी तक संगीतज्ञ का प्रदर्शन क्षेत्र या तो राज दरबार था अथवा मंदिर था। नाद विद्या के श्रेष्ठ विद्वानों का जनसाधारण से निकट का संबंध नगण्य सा था। उन नाद साधको के लिये श्रद्धा की महत्ता थी, तार्किक बुद्धि को ये दोष समझते थे। अस्तु किसी व्यक्ति द्वारा ऊहापोह भरा प्रश्न नाद साधकों के क्रोध का भाजन करने कारण हो जाता था। अनेक उस्ताद तो ऐसे थे जो यदि किसी शिष्य को कृपा कर कोई बंदिश सिखाते तो राग का नाम बताना भी आवश्यक नहीं समझते थे। शिष्य की इतनी हिम्मत न होती थी कि वह उस्ताद जी से उस बंदिश के राग का नाम पूछ सकता। जहॉं नाद सधको की यह मनों दशा हो वहाँ उनसे किसी ऐतिहासिक तथ्यपूर्ण बात को लेकर तर्क वितर्क करना तो एक असंभव बात थी।
ग्यारहवीं शताब्दी के बाद से भारत में बसे मुसलमानों ने इस देश को अपना वतन मानना प्रारंभ कर दिया था किंतु अंग्रेज़ों, फ्रांसिसी तथा पुर्तगालों ने इस देश पर अधिकार कर लेने के बाद भी इसे अपना नहीं माना। साथ ही अपनी श्रेष्ठता को सिद्ध करने के लिये इन लोगों ने यहॉ अपनी भाषा, संस्कृति सभ्यता, अौर धर्म का प्रचार करना प्रारंभ कर दिया। कुछ ऐसे भी विदेशी थे जो कौतुहल वश अथवा अपने स्वाभाविक प्रेम वश साहित्य, कला, संगीत को समझने की चेष्टा करने लगे। भारतीय साहित्य के मूल्यांकन के लिये इन विदेशियों ने उसका यथोचित अध्ययन किया, कला संबंधी मूल्यांकन में भी इन लोगों ने श्रम किया किंन्तु भारतीय संगीत को इनमें से कोई अात्मसात न कर सका फिर भी कई विदेशियों ने उस पर अपनी कलम चलाई। भारतीय संगीत को समझने की चेष्टा में कुछ विद्वानों ने मध्य एशिया का सहारा लिया अौर कुछ चीन के संगीत के माध्यम से भारतीय संगीत में प्रवेश पाने की चेष्टा करते रहे।
यूरोप में संगीत के विकास का विस्त्रित इतिहास उपलब्ध होता है। पाश्चात्यों में ऐसी प्रवृत्ति रही है जिससे वे समाज की प्रत्येक महत्वपूर्ण घटना को प्रत्येक नये प्रयोग को लिखते रहते हैं ताकि इतिहास की कड़ी जुड़ती रहे अौर उनका कार्य, उनका नाम भी जीवित रह सके। उसके विपरीत भारतीय परंपरा ऐसी रही है कि कोई व्यक्ति साहित्य, कला, संगीत अादि के क्षेत्र में बड़ा से बड़ा योगदान देने के बाद भी उसका श्रेय स्वयं नहीं लेना चाहता। वह उसे या तो ईश्वरार्पण कर देता है अथवा अपने श्रेष्ठ पूर्वजों को अर्पित कर देता है। यही कारण है कि साहित्य,कला तथा संगीत के बड़े बड़े कवियों, लेखकों, कलाकारों के काल एवं उनके व्यक्तिगत जीवन के संबंध में हमें निश्चित रूप से कुछ पता नहीं चलता। त्याग अौर तपस्या ही भारतीय कलाकारों का अादर्श अौर अाभूषण रहा है।
उन्नीसवीं शताब्दी में कुछ विदेशियों द्वारा अपनी प्रवृत्ति के अनुसार भारतीय संगीतज्ञों से भी यह प्रश्न करना प्रारंभ किया कि अमुक वाद्य किसने बनाया अमुक चीज़ कितनी पुरानी है, अमुक वस्तु का क्रमिक विकास कैसे हुअा? बेचारे भारतीय संगीतज्ञ जो अपने सुर ताल में खोये, डूबे रहने के अादी थे इन प्रश्नों का क्या उत्तर देते? फिर भी यदि अँग्रेज बहादुर ने यदि कोई बात जाननी चाही है तो उसका कुछ न कुछ तो उत्तर देना ही चाहिये, अस्तु उस्तादों ने उस समय जो कुछ जैसा कहना लाभप्रद तथा उपयोगी समझा उसमें अावश्यकतानुसार कुछ अौर नमक मिर्च मिला कर बताना प्रारंभ कर दिया अौर उन्हीं बातों का अाधार लेकर इन विदेशियों ने भारतीय संगीत संबंधी अपना दृष्टिकोण बनाना तथा उस पर अपने विचार व्यक्त करना प्रारंभ कर दिया।
सन् १८३५ के अासपास उत्तरप्रदेश की बांदा स्टेट संगीत का एक बड़ा केन्द्र मानी जाती थी। उस दरबार में उस युग के श्रेष्ठतम् गायक वादक रहते थे। इसी दरबार में अँग्रेजों ने अपने अधिकारी के रूप में कैप्टन विलर्ड को रखा था। कैप्टन विलर्ड संगीत में रुचि रखते थे। अस्तु, उन्होने इस अवसर का लाभ उठाकर ‘म्यूज़िक अॉफ हिन्दुस्तान’ नामक पुस्तक लिखी जो १८३८ में तैयार हुई। इस पुस्तक में उस समय के भारतीय संगीत का अच्छा वर्णन मिलता है जिसमें स्वभावतः लेखक ने वर्तमान के साथ साथ कुछ ऐतिहासिक बातें भी कही हैं। इसी पुस्तक में लिखा है कि ‘कुछ लोगों का कहना है कि सितार की रचना अमीर खुसरो ने की थी’। बस फिर क्या था सभी कैप्टन विलर्ड की बात कहने लगे। अौर अाज तक कहते चले जा रहे हैं।
सर एस.एम. ठाकुर ने अपनी पुस्तक ‘यन्त्र क्षेत्र दीपिका’ में सितार का प्रादुर्भाव त्रितंत्री वीणा से माना है। कुछ अन्य भारतीयों ने भी यही बात कहने की चेष्टा की किन्तु त्रितंत्री वीणा सितार कब, कैसे हो गयी इसका कोई सिलसिला न ढूँढ पाने के कारण उनकी इस बात को मान्यता न मिल सकी।
सेहतार में तीन तार से सात तार कैसे लग गये इसका भी पता न होते हुए भी चूँकि साहब बहादुर एक बात कह गये हैं अस्तु हम उसे सगर्व दोहराते रहे अौर उसको प्रामाणिक सिद्ध करने के लिये किंवदँतियॉ गढ़ते रहे।
इसी बीच में दक्षिणी विद्वानों ने पूरे हिन्दुस्तानी संगीत पर ईरानी प्रभाव तथा अपना संगीत २०० वर्ष पुराना होते हुए भी शुद्ध प्राचीन परंपरा का संगीत बताना प्रारंभ कर दिया अौर सितार को भी ईरानी वाद्य घोषित कर दिया। सितार नामक वाद्य मध्य पूर्व एशियाई देशों में प्रचलित था, अब भी है, इस लिये सामान्य लोगों को यह मानने में क्या अापत्ति हो सकती है कि यह वाद्य वहीं से अाया अथवा अमीर खुसरो ने वहीं की नकल में यहॉ यह वाद्य बना लिया। जब कि यह पूरा किस्सा मनगढ़ंत एवं भ्रमात्मक है।
अब तक की खोजों से पता चलता है कि मतंग मुनि (७वीं ८वीं शती) द्वारा निर्मित किन्नरी वीणा विश्व का पहला वाद्य है जिसमें वादन के लिये परदे लगाये गये। ८वीं से १२वी शताब्दी तक मार्गी तथा देशी किन्नरी के रूप प्रचार में अा चुके थे। त्रितंत्री वीणा में परदों की व्यवस्था किन्नरी के अाधार पर ही हुई।
त्रितंत्री वीणा का सितार नाम लगभग २०० वर्ष पुराना है उसके पहले इसको ग्रंथों में त्रितंत्री वीणा या निबद्ध तंबूरा कहा जाता था किन्तु सामान्य जन इसे यंत्र अथवा जन्त्र के नाम से पुकारते थे। हमारे देश में हार्मोनियम का प्रचार अत्याधुनिक है यह सभी जानते हैं कि बिना अच्छी शिक्षा अौर अभ्यास के तम्बूरा पर गाना संभव नहीं है। जिन्हें बहुत अच्छा स्वर ज्ञान नहीं होता उन्हें गाने के लिये किसी ऐसे वाद्य यंत्र की अावश्यकता होती है जो स्वरों का सहारा प्रदान कर सके। मध्य युग में कई सौ वर्षों तक जंत्र का यही उपयोग था। मन्दिरों के गायक,गाने के सामान्य शौकीन व्यक्ति तथा साधू संत सितार बजा कर ही गीत भजन अादि गाया करते थे। जंत्र में परदों के माध्यम से स्वर बँधे रहते थे इसीलिये इसे निबद्ध तंबूरा भी कहा जाता था किन्तु सामान्य जन इसे जंत्र के नाम से ही जानते थे। सर एस.एम. ठाकुर की सितार पर लिखी गई पुस्तक का नाम ‘यन्त्र क्षेत्र दीपिका’ रखा जाना इसी अोर संकेत करता है।
यद्यपि यंत्र अथवा जंत्र किसी भी वाद्य को कह सकते हैं किन्तु य़ंत्र अथवा जंत्र का अर्थ एक विशेष वाद्य ही मुख्य था जिसे १३वीं शताब्दी तक त्रितंत्री वीणा कहा जाता था।
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