‘कला का अस्तित्व मानवीय संवेदनाओं और सृजनेन्द्रिक क्षमताओं के संयोग के परिणामस्वरूप उद्भूत होता है। नैसर्गिक अनुभूति को तराश कर जब मानव उन स्पंदित संवेदनाओं को किसी भौतिक भित्ती पर रचता है तब कला का जन्म होता है। यदि कलाकार के अन्दर स्वयं रसानुभूति नहीं है तो उसके द्वारा प्रदर्शित कला भी निर्जीव ही होगी।’
सुप्रसिद्ध विचित्र वीणा वादक के रूप में प्रतिष्ठित, डॉ लालमणि मिश्र एक अद्भुत संगीत-सृजनकर्ता थे। सहजता और पूर्णता उनके संगीत का अंग था। उनकी सांगीतिक कार्यक्षमता उनके शास्त्रीय ज्ञान का दर्पण थी साथ ही उन्हें अपने द्वारा बजाए गये प्रत्येक वाद्य की पकड़ और विशिष्टताओं को समझने की अद्भुत क्षमता थी। डॉ. मिश्र एक ध्रुवपद गाायक थे। उन्होंने न केवल उसकी जटिलता को सीखा बल्कि अपनी किशोर अवस्था में ही, उसके विस्तार, आलाप, उपज और विभिन्न प्रकार की लयकारियों को आत्मसात कर इस गायन कला की आत्मा को सिद्ध कर लिया। ध्रुवपद में लयकारी और गमक आधारभूत तत्व हैं। अस्तु, यह अति क्लिष्ट गायकी ही उनके सिद्धान्त का मौलिक आधार बनी। तदुपरान्त, सांगीतिक ध्वनियों पर पूर्ण दक्षता प्राप्त कर वे वाद्य संगीत की ओर मुड़े और अनेक वाद्यों पर दक्षता हासिल कर एक उत्कृष्ट वादक के रूप में स्थापित हुए। ध्रुवपद गायक के रूप में पहले से ही प्रतिष्ठित डॉ मिश्र अपनी सृजनात्मक और अभिनव क्षमताओं के निर्गमन का माध्यम ढूँढ रहे थे। ऐसे सम्पूर्ण वाद्य को, जो सांगीतिक सभी भावों का पूर्ण निष्पादन करता हो, प्राप्त करने की ललक में उन्होंने अनेक वाद्यों को सीखा। जितना बजाते गये उतनी ही उनकी मौलिकता निखरती गयी। इसी सीखने के तारतम्य में उन्होंने जलतरंग, सरोद, रुद्र वीणा, शंतूर, बॉसुरी, तबला, सितार के अतिरिक्त, स्वप्रेरणा से विचित्र वीणा भी साधी। न केवल उन्होंने इस लुप्त प्राय: वाद्य को विश्व के सम्मुख प्रस्तुत किया वरन उसके शीर्ष वादकों में भी जाने गए।
कोई भी वाद्य अपने परिसीमन में चाहे कितना भी बँधा हो, डॉ मिश्र की शैली एवं तकनीक भावाभिव्यक्तिकरण का आधार ढूँढ ही लेती थी। यह दृष्टव्य है कि उनकी शैली शास्त्रोन्मुखी होते हुए भी व्यक्तिपरक रही है। दूसरे शब्दों में उनकी शैली किसी वाद्य के सीमित दायरे से बँधी हुई नहीं थी। डॉ मिश्र के मामले में यह बात स्पष्ट रूप से साबित होती है कि उनकी शैली उनके मस्तिष्क और विचार के योग की ऐसी सर्जना थी जो वाद्यों को अपने अधीन बना लेती थी। डॉ मिश्र ने राग भेदन का ऐसा तरीका ढूँढ निकाला था जहाँ स्वर-संवाद के अत्यंत क्लिष्ट और सुन्दर संबंध भी दिखाई पड़ने लगते थे। वे परंपरा में विश्वास रखते थे और उसके अनुशासन का आदर भी करते थे। इसी लिये वे हमेशा राग के नियमों के अनुकूल ही बजाते थे। उनका अपने शिष्यों से भी यह आग्रह रहता था कि साधक प्रथम दिन से ही इस अनुशासन को माने; उनका मानना था कि सही कल्पनाशीलता (उपज) अनुशासन की सुरंग से गुजरने पर ही पैदा हो सकती है।
मंच प्रदर्शन के लिये क्लिष्ट रागों का चयन करना उनकी फ़ितरत में था। रागों की कठिन स्वरावली उन्हें कभी विचलित नहीं कर पाई; बल्कि वे उसका आनंद उठाते थे। उनका राग चयन बहुत स्पष्ट था। रागों के प्रति उनकी श्रद्धा, उनके द्वारा बनाई बंदिशों में स्पष्ट परिलक्षित होती है। उनकी सौंदर्यसृष्टि समस्त संभावित स्वर योजनाओं को अनुकूल स्थान देती थी। यह तथ्य उनकी सभी बंदिशों में दिखाई देता है। उनकी शिष्या डॉ पुष्पा बसु का मानना है कि मात्र उनकी बंदिशों को कण्ठस्थ कर लेने भर से राग के सम्पूर्ण चलन और स्वरूप को आत्मसात किया जा सकता है।
वाद्य संगीत में किसी ऐसे तरीके को ढूँढने की इच्छा से, जो गायकी की शैली के समान सम्पूर्ण हो, उन्होंने एक नयी गत शैली का निर्माण किया जिसे पहले पहल, गत की क्लिष्टता के कारण, ‘कूट की गत’ के नाम से जाना गया। धीरे धीरे यही शैली ‘मिश्रबानी’ के नाम से जानी जाने लगी। कठिन छन्दों के प्रयोग अन्य संगीतज्ञों द्वारा भी पूर्व में प्रयुक्त होने के उदाहरण हैं, किन्तु सतत, पूर्वनियोजित प्रयोग के अभाव में, शैलीगत बंदिश का रूप न ले पाने के कारण, रसज्ञ व रसिकों के बीच इन्हें ‘कूट की तान’ के रूप में अलंकरण मात्र माना गया। इस नई गतकारी के अन्तर्गत उन्होंने ‘विलम्बित झूमरा ताल, विलम्बित झपताल और मध्यलय आड़ा-चारताल में बंदिशें निर्मित की। इस नई शैली की गत रचना में उन्होंने ‘दा रदा -र दा’ मिज़राब बोल निर्धारित किये। विशेष रूप से विलंबित रचनाओं में ये बोल अर्ध-स्वर के प्रयोग से एक नये स्वरूप को दर्शाते हैं। इन बोलों के आधार पर तीन ताल में मनचाहे स्थान से उठने वाली गतों का निर्माण संभव हुआ।
डॉ मिश्र आधुनिक युग के श्रेष्ठ संगीतज्ञों में से एक रहे हैं। भारतीय संगीत की गूढ़ता को, चाहे शास्त्र की हो या प्रायोगिक की, स्पष्ट, सरल कर ग्राह्य बनाने में उनका योगदान अतुलनीय है। उनके द्वारा भारतीय संगीत में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर हुए अध्ययन के फलस्वरूप, संगीत -समालोचना प्रतिस्थापित करने की दिशा किये गये कार्य को धीरे धीरे नई रौशनी मिल रही है। न केवल संगीतेन्दु डा लालमणि मिश्र वाद्यों के श्रेष्ठ मंच प्रदर्शक थे, बल्कि उन्होंने कुछ वाद्यों की ध्वनि और सप्तक की परिधि भी बढ़ाई। श्रुति वीणा निर्मित कर, भरत की चतुः सरणा को सिद्ध किया जिस पर एक साथ समस्त 22 श्रुतियों को सुना जा सकता है। उन्होंने आधुनिक वाद्यों के सांगीतिक क्षेत्र की सीमा का निर्धारण कर भारतीय संगीत सिद्धांतो की सत्यता और खरेपन को स्थापित किया। वस्तुत: उन्होंने भारतीय तंत्री वाद्य को उसका विशिष्ट मुख स्वर प्रदत्त किया। मिश्रबानी ऐसी शैली है जिसने भारतीय संगीत के शास्त्रीय आधार पर स्थित रहते हुए, वाद्ययंत्र को कण्ठ संगीत की परंपरा व प्रचलन के प्रभाव से मुक्त कर, पूर्ण स्वतंत्र अस्तित्व प्रदान किया।
Dr. Lal Mani Mishr is connoisseur of music…hats off to his contributions.