बाल्यकाल से ही अपनी नैसर्गिक संगीत प्रतिभा के फलस्वरूप, लालमणि मिश्र को 1500 ध्रुव-पद और 500 खयाल बंदिशें कण्ठस्थ थीं। कलकत्ता में फैली अशांति के कारण, जिस समय वह कानपुर लौटे तब उन की अवस्था अठारह वर्ष की थी। कान्यकुब्ज महाविद्यालय में संगीत शिक्षण के साथ साथ, स्व-साधना तथा शोध-चिंतन में रत रहे। एक ओर वह भारतीय संगीत के अतीत की कडियों को जोड़ने का कार्य कर रहे थे, दूसरी ओर संगीत के माध्यम से नन्हें मस्तिष्क को स्वाधीन भारतीय नागरिक बनने को तैयार कर रहे थे। उनके लिए राष्ट्र-चिंतन से युक्त बाल-गीत लिखे तथा सुगम्य धुनों में बाँधा।
सत्तर के दशक में बनारस हिंदु विश्वविद्यालय के मँच कला संकाय को सतत अग्रसित करते हुए उन्होंने भारतीय संगीत शिक्षण को वैश्विक बनाया तथा, यूनिवर्सिटी ऑव पेनसिल्वैनिया में 1969 में शास्त्रीय संगीत का विभाग आरम्भ किया। विचित्र-वीणा वादन से प्रणेत मिश्रबानी तंत्रकारी स्थापित करने के साथ ही श्रुति-वीणा का निर्माण, संगीत वाद्यों का उद्भव व विकास, ध्रुपद का पुनरोत्थान तथा सामिक संगीत के रहस्य को उद्घाटित करने जैसे अनेक महती कार्य, नियमित शिक्षण, वादन करते हुए पूर्ण किए।
डॉ. लालमणि मिश्र मानते थे कि भारतीय संगीतज्ञ का आदर्श साधक होना है, प्रदर्शनकार होना नहीं। वे कहते थे, “भारत में वैष्णव, शैव, शाक्त, आदि परम्पराओं में अनेक विषयों पर मतभेद रहते हुए भी संगीत का महत्व निरपवाद माना गया है। यह भारतीय संगीत की आध्यात्म-निष्ठा का परिणाम है। वस्तुत: न केवल संगीत, अपितु भारत की प्रत्येक कला का चरम लक्ष्य इस आध्यात्मिक निष्ठा की प्राप्ति ही रहा है।“ (भारतीय संगीत वाद्य, 2005. पृ. 22)
यद्यपि उनके द्वारा आहूत अनेक राग प्रचलन में हैं, किंतु “सामेश्वरी” राग के रूप में सामिक स्वर व्यवस्था का प्रतिष्ठापन है। साम काल में स्वर संज्ञा को आधुनिक स्वर संज्ञा में अनूदित कर साम स्वरों के क्रम को सदा सर्वदा के लिए उपलब्ध करा दिया। सामेश्वरी का वादन विचित्र-वीणा पर संगीत महाविद्यालय में 1978 में किया। स्पूल-टेप रिकॉर्डर पर ध्वन्यांकन किया गया किंतु उनकी यह अन्तिम प्रस्तुति उनके स्वरूप ही स्थूल में बँध न पायी। उनके शिष्य डॉ. लक्ष्मी गणेश तिवारी ने सर्व-प्रथम इस का गायन किया किंतु गुरु को यह भेंट दे न पाए और 1979 में उनके निधन के अनेक वर्षों पश्चात वाग्गेयकार डॉ. मिश्र की सर्वाधिक कोमल रचना सन 1983 में ही मुखर हो पायी।
अप्रैल 1977 में धर्मपत्नी श्रीमती पद्मादेवी के निधन पर समस्त दुख अंतरस्थ कर उन्होंने प्रकट रूप से अपना धैर्य और गाम्भीर्य सुरक्षित रखा, पर उनकी वेदना सामेश्वरी के काव्य में पूर्ण अभिव्यक्त हुई।
विलम्बित
तुम बिन देखे / ओ मोरे मितवा / कित दिन बीत गए
यह कैसी रीत / प्रीत की / तड़पत छोड़ गए
मध्यलय / द्रुत
अपन गुण गाए गुणी न कहाए
काहे को मन भरमाए
सात सुरन को भेद न जाना
समझत न समझाए
रुग्णावस्था में भी ज़रा ठीक महसूस करते ही संगीत चर्चा करते थे। सामेश्वरी के ऊपर ऐसी अवस्था में दिया गया उनका व्याख्यान उनकी अन्य सामग्री के साथ सुरक्षित है। इस आख्यान का अंग्रेज़ी शब्दांकन ओमनाद पर दिया गया है।
काशी हिंदु विश्वविद्यालय संगीत महाविद्यालय में विचित्र-वीणा पर 1978 में डॉ. लालमणि मिश्र द्वारा किए गए सामेश्वरी वादन के ध्वन्यांकन न होने पाने की टीस को 23 मार्च 2018 को नई दिल्ली के त्रिवेणी सभागार में उनकी ही वीणा पर सामेश्वरी वादन कर पुत्री डॉ. रागिनी त्रिवेदी ने किन्चित शीतल किया। प्रकृति का प्रयास ही समझें कि ख्यात नृत्य-गुरु पण्डित तीरथ राम शर्मा आज़ाद की चौरासींवी वर्षगांठ पर आयोजित इस कार्यक्रम में साम-स्वरों को पुन: उच्चारण प्राप्त हुआ।