सितार: एक ऐतिहासिक सत्य- भाग-२

caves1त्रितंत्री वीणा ही जंत्र के नाम से प्रचलित थी इसका बहुत बड़ा प्रमाण संगीत रत्नाकर की कल्लिनाथ टीका है। वे कहते हैं-
“तत्र त्रितन्त्रिकैव लोके जन्त्र शब्दनोच्यते”
                                    (संगीत रत्नाकर,कल्लिनाथ की टीका,वाद्याध्याय- पृष्ठ-२४८)

दूसरा प्रमाण है अबुल फज़ल की ‘अाइने-अकबरी’ जिसमें उन्होंने जन्त्र नामक वाद्य यंत्र का वर्णन करते हुए उसमें कटा तुम्बा लगने, १६ पर्दे होने और पॉच तार लगने की सूचना दी है। सितार का यही रूप उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक प्रचलित था। बाद में इसमें तारों की संख्या और बढ़ी, जो अाठ तक पहुँच गयी। किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी में सात तार के सितार का सर्वमान्य रूप प्रचलित हुअा।
सामान्य लोगों में जन्त्र वाद्य ही सर्वाधिक प्रचलित था। इसीलिये मध्य युग के कवियों ने इसका बार बार उल्लेख किया है। कुछ उदाहरण निम्नवत हैं-

जंत्र,पखाउज,अाझि बाजा। सुरमण्डल, रबाब, मेल साजा।। (पद्मावत-४३)

इतहूँ बाजे बाजन लागे, दुनदुभि धौंसा गाजे।
रुंज, मुरज, अावज, सारंगी, यंत्र, किन्नरी साजे।। (परमानन्द दास)

तहाँ बाजत बीन, रबाब, किन्नरी, अमृत कुण्डली यंत्र। (कृष्णदास)

फलन माँझ ज्यों करूइ तोमरी रहत घुरे पर डारी।
अब तौ हाँथ परी यंत्री के बाजत राग दुलारी।। (सूरदास)

कल्लिनाथ का संकेत, अबुल फज़ल का वर्णन, मध्य युगीन कवियों का स्थान स्थान पर उल्लेख तथा बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक सितार को जंत्र कहना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि १३वीं शताब्दी तक हम जिसे त्रितंत्री वीणा कहते रहे उसी को मध्य युग में जन्त्र कहने लगे और अाज उसी को ‘सितार’ कहते हैं।
मध्य युग में सामान्य स्वर ज्ञान रखने वाले लोग स्वर का सहारा लेने के लिये इसे बजा कर गाया करते थे। अस्तु इस वाद्य का प्रयोग तो बहुत होता था किन्तु इसकी प्रतिष्ठा सरस्वती वीणा तथा रबाब के सामने नगण्य थी। संगीत के प्रतिष्ठित विद्वान तानसेन के बाद उनके पुत्र और पुत्री के वंश के लोग ही संगीत क्षेत्र के मुखिया थे। पुत्र वंश रबाब वादक था और पुत्री वंश सरस्वती वीणा वादक था। फलत: दरबारों में सरस्वती वीणा तथा रबाब का वादन ही प्रतिष्ठा के अनुकूल समझा जाता था।
अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अपने वंश के बाहर के लोगों को शिक्षा देने के सिलसिले में इन उस्तादों ने सितार का प्रयोग किया। जो लोग बीन के अालाप अंग को सीखने की जिद्द करने लगे और जिनकी जिद्द टालना इन उस्तादों के लिये लाभप्रद न थी उन्हें संतोष प्रदान करने के लिये सितार का बड़ा अाकार बना कर उसमें अपेक्षाकृत मोटे तार लगाकर तथा बीन के सुर में मिलाकर अालाप का अंग सिखा दिया।
जिन लोगों ने सितार और सुरबहार की तालीम हासिल की उन्होंने अपनी कड़ी मेहनत से इन बाजों की किस्मत पलट दी और धीरे धीरे ये बाज भी दरबारों में पहुँचने लगे। फिर भी इनकी प्रतिष्ठा उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक बीन और रबाब के मुकाबले कम ही रही।
समय का चक्र चलता रहा, परिस्थितियाँ बदलती रहीं। तानसेन का वंश जो एक से बढ़ कर सैकड़ों की संख्या में देश के सभी प्रमुख राजदरबारों में सर्वश्रेष्ठ स्थान बना चुका था फिर धीरे धीरे सिमटने लगा, छोटा होने लगा। दूसरी अोर सितार और सुरबहार वादक कठिन श्रम करके ‘नई वादन सामग्री’ के साथ अपनी प्रतिष्ठा भी बढ़ाते रहे और शिष्य परंपरा भी बढ़ाते रहे। परिणाम स्वरूप अाज रबाब का लोप हो चुका है और सरस्वती वीणा अन्तिम साँस ले रही है।
उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक यद्यपि सितार में ५ से ८ प्रमुख तारों का प्रयोग होता रहा, किन्तु वाद्य की ध्वनि उतनी अाकर्षक अथवा मधुर न थी जितनी की अाज सुनी जाती है। उस समय या तो १६ पर्दों का प्रयोग होता था या २४ परदे लगा दिये जाते थे।पहले प्रकार को ‘चल ठाठ’ कहते और दूसरे को ‘अचल ठाठ’ सितार कहते थे। ‘चल ठाठ’ के सितार में मध्य सप्तक के क्षेत्र में गाँधार और निषाद का एक एक ही परदा रहता था। अस्तु अगर ऐसा राग बजाना हो जिसमें दोनों गाँधार तथा दोनों निषादों का प्रयोग करना हो तो उस अवस्था में एक स्वर रूप को परदे पर और दूसरे स्वर रूप को तार खींच कर मींड़ के प्रयोग से निकालते थे। इस प्रक्रिया में स्वर के दोनों रूपों का द्रुत प्रयोग बहुत कठिन तथा कष्ट साध्य हो जाता था। फिर भी काम इस लिये चलता था कि सितार में केवल तोड़़ों का प्रयोग होता था। तान बजाना वर्जित था। २४ परदा के ‘अचल ठाठ’ वाले सितार में द्रुत गति में गलत परदे पर उँगली पड़ जाने का बहुत डर रहता था। इसलिये अधिकांश लोग १६ परदे के सितार को ही बजाना पसंद करते थे।
जब तक जंत्र का प्रयोग गाने के साथ स्वरों का सहारा लेने के लिये किया जाता था तब तक उसे द्रुत लय में बजाने की अावश्यकता न थी किन्तु जब से जंत्र का स्वतंत्र वादन विकसित होने लगा तबसे उसे विलंबित, मध्य और द्रुत में बजाने की चेष्टायें भी होने लगी।
ऐसा पता चलता है कि अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग से जंत्र का स्वतंत्र वादन होने लगा था किंतु जंत्र वादन की ‘मसीतखानी’ और ‘रजाखानी’ शैली का विकास होने पर ही इस वाद्य का महत्व बढ़ा और उसके अच्छे अच्छे वादक होने लगे।
ऐतिहासिक प्रमाणों के अाधार पर यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक तीन दशकों में दिल्ली में मसीत खाँ तथा लखनऊ में गुलाम रजा रहते थे जो अपने समय के बड़े प्रभावशाली सितार वादक थे। उनके नाम से ही मसीतखानी और रजाखानी ‘बाज’ प्रचलित हुअा। लगभग एक सौ वर्षों तक देश के सभी जंत्री इन दो शैलियों में विभक्त थे। जो मसीतखानी बजाता वह केवल मसीतखानी बजाता जो रजाखानी बजाता वह केवल उसे ही बजाता था। यह दोनो अलग अलग ‘बाज’ थे जिन्हें ‘पछाहीं बाज’ तथा ‘पूर्वी बाज’ के नाम से भी जाना जाता था। अच्छे जंत्री अपने वाद्य को समुन्नत करने की चेष्टा करते रहे अस्तु जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है मुख्य तारों की संख्या घटती बढ़ती रही परदों की संख्या भी घटती बढ़ती रही तथा उन्नीसवीं शताब्दी का अन्त होते होते सितार में तरब के तारों का प्रयोग भी किया जाने लगा।
सितार में कटे हुए तुम्बे का ही प्रयोग होता है किन्तु उसे दो तरह से काट कर सितार की ध्वनि गंभीर तथा मधुर बनाने की चेष्टा होती रही। एक प्रकार तो वही था जैसा कि अाज देखा जाता है। दूसरे प्रकार में तुम्बे को ऐसा काटते थे जिससे उसकी उँचाई घट जाती थी किन्तु व्यास बढ़ जाता था। उसे चपटे तुम्बे का सितार कहते थे।
एक समय था जब मिरज (महाराष्ट्र) तथा ढाका (बंगला देश) के बने सितार अच्छे समझे जाते थे। इन वाद्यों में सजावट का काम भी बड़े अाकर्षक ढंग से किया जाता था।
१९४० के अास पास के सितार की बनावट में, ध्वनि में, वादन सामग्री में इतना अधिक विकास हो गया कि हिन्दुस्तानी संगीत के अन्य सभी वाद्य उसके सामने फीके पड़ने लगे।
जहाँ तक अाकर्षक ध्वनि एवं सुन्दर, सुडौल सितार बनाने का प्रश्न है उसका पूरा श्रेय बंगाल के जंत्र बनाने वालों को जाता है। उन्नीसवीं शताब्दी के सितारों की अपेक्षा अाधुनिक सितारों की बनावट तथा उनके नाद गुण में जो विकास हुअा है उसका विस्तृत उल्लेख करना इस छोटे से लेख में संभव नहीं है किन्तु यह सत्य है कि यदि अन्य वाद्यों को पीछे छोड़ता हुअा सितार देश के प्रमुख वाद्य का स्थान ग्रहण कर सका है तो उसका बहुत बड़ा कारण बंगाल के सितार बनाने वालों का कठिन श्रम था।
जंत्र, सुन्दर, अाकर्षक, नाद की तारता, तीव्रता अादि गुणों से युक्त होने के बाद भी यदि इसी युग में ऐसे जंत्री पैदा न होते जो इस समुन्नत जंत्र की प्रत्येक विशेषता का भरपूर प्रयोग कर उसे भारतीय राग संगीत का प्राविधिक एवं भावात्मक अभिव्यक्तिकरण का सर्वश्रेष्ठ वाद्य सिद्ध करते तो अाज इसे अपने देश में तथा विश्व में जो प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है वह कभी न होती। अाज देश में अनेक बहुत अच्छे सितार वादक मौजूद हैं और इस वाद्य की प्रतिष्ठा बढ़ाने में उन सबका योगदान है।

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