ओम-स्वरलिपि में मिश्रबानी

वर्षों से बहु-प्रतीक्षित, नव-प्रकाशित पुस्तक के प्राक्कथन में डॉ. पुष्पा बसु भारतीय संगीत के उत्थान में डॉ. लालमणि मिश्र के योगदान के सम्बंध में कहती हैं,

यह ग्रंथ (“भारतीय संगीत वाद्य”) संगीत के क्षेत्र में महानतम उपलब्धि है तथा वाद्य संगीत के अध्यापकों, विद्यार्थियों, शोधकर्ताओं के लिये प्रामाणिक संदर्भ ग्रंथ है। डॉ. लालमणि मिश्र ने वादन के क्रियात्मक पक्ष को केंद्रित कर “तंत्री नाद” लिखा जिसे साहित्य रत्नालय, कानपुर ने प्रकाशित किया। यह ग्रंथ भी शीघ्र विक्रित हो, बहुत समय से उपलब्ध नहीं है। इस ग्रंथ में वादन सामग्री के रूप में पंद्रह रागों का विस्तृत वर्णन, आलाप, तान तथा तीन ताल व अन्य तालों की गतें दी गयी हैं। गुरु जी की योजना इस पुस्तक के चार भाग प्रकाशित करने की थी।

ओम-स्वरलिपि में मिश्रबानी” उनके कृतित्व को आधुनिक पाठकों के लिये प्रस्तुत करने की दिशा में नवीनतम प्रयास है।

डॉ. लालमणि मिश्र ने रहस्य की अपेक्षा, प्रकाशन और शिक्षण को महत्व दिया। जो गत निर्मित करने की विधि का निर्माण कर ले, उसे रचना करने में समय ही कितना लगता है। वस्तुत: वे चाहते ही थे संगीतकार, पारम्परिक गत-बंदिशों से सीख अपनी भी उतनी ही सशक्त, ग्राह्य और लोकप्रिय रचना का निर्माण कर सके। उनके मार्गदर्शन और प्रेरणा से उनके लगभग सभी विद्यार्थी विभिन्न रागों और तालों में रचना कर पाये। फिर भी, उनकी सिखायी रचनाओं का सदैव व्यवहार करते रहे। बनारस हिंदु विश्वविद्यालय में जब उन्होंने एम. म्यूज़ और डी. म्यूज़. पाठ्यक्रम आरम्भ किये तो इनके भी दो अनिवार्य भाग थे — मँच-प्रदर्शन और रचनांकन। प्रत्येक विद्यार्थी पाठ्यक्रम पूर्ति हेतु निर्दिष्ट स्वरूप में चालीस स्व-निर्मित रचनाएँ प्रस्तुत करता था।

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सप्तक के स्वरों की स्थापना

IMG_20180525_202010सप्तक के स्वरों की स्थापना सर्वप्रथम महर्षि भरत के द्वारा हुई। वे अपने सप्त स्वरों को षड़्ज ग्रामिक स्वर कहते थे। षड़्ज ग्राम से मध्यम ग्राम और मध्यम ग्राम से पुनः षड़्ज ग्राम में आने के लिये उन्हें २ स्वर स्थानों को और मान्यता देनी पड़ी। जिन्हें ‘अंतर गांधार’ और ‘काकली निषाद’ कहा।

महर्षि भरत ने अपने स्वरों को न शुद्ध कहा है न ही विकृत। क्योंकि उनको सभी स्वरों की प्राप्ति षड़्जग्राम की व्यवस्था, मध्यमग्राम की व्यवस्था और उनकी मूर्छनाओं से हो जाती थी। यथा- यदि कोमल ऋषभ की आवश्यकता हुई तो धैवत की मूर्छना से अथवा ऋषभ की मूर्छना से उसकी प्राप्ति हो जाती थी। क्योंकि ध-नी का और रे-ग का अन्तराल द्विश्रुतिक है। धैवत को षड़्ज मानने से नी कोमल ऋषभ हो जाता है।

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राग अहीरी जोगिया

DSC00188 भारतीय संगीत सागर स्वरूप है। साहसी नाविक कोने कोने जाकर डुबकी लगाते हैं, किंतु अंकित, चिह्नित करने के तमाम प्रयासों के बाद भी नए मोती मिलने की सम्भावना बनी ही रहती है। द्वितीय सहस्राब्दी के दूसरे दशक के समापन तक संगीत को ज्ञानाकृति  देने का कार्य सतत है। पुस्तकों के अतिरिक्त इण्टरनैट त्वरित स्रोत होता जा रहा है। यह संगीत का ही प्रवाह है कि उत्सुक को अनोखा रत्न देने को सद्य: प्रस्तुत रहता है। राग ‘अहीरी जोगिया’ भारतीय शास्त्रीय संगीत के अप्रचलित रागों में से एक है। Continue reading

सामेश्वरी

Sameshwariबाल्यकाल से ही अपनी नैसर्गिक संगीत प्रतिभा के फलस्वरूप, लालमणि मिश्र को 1500 ध्रुव-पद और 500 खयाल बंदिशें कण्ठस्थ थीं। कलकत्ता में फैली अशांति के कारण, जिस समय वह कानपुर लौटे तब उन की अवस्था अठारह वर्ष की थी। कान्यकुब्ज महाविद्यालय में संगीत शिक्षण के साथ साथ, स्व-साधना तथा शोध-चिंतन में रत रहे। एक ओर वह भारतीय संगीत के अतीत की कडियों को जोड़ने का कार्य कर रहे थे, दूसरी ओर संगीत के माध्यम से नन्हें मस्तिष्क को स्वाधीन भारतीय नागरिक बनने को तैयार कर रहे थे। उनके लिए राष्ट्र-चिंतन से युक्त बाल-गीत लिखे तथा सुगम्य धुनों में बाँधा। Continue reading

डॉ. लालमणि मिश्र — प्रकाशित संगीत

LMM69to78यह भारतीय संगीत, समाज व जीवन क्रम की तत्कालीन स्थिति का परिचायक है, कि किशोरावस्था के आरम्भ में ही जिसे फिल्म, थियेटर व रिकॉर्डिंग स्टूडियो में संगीत संयोजन का आमंत्रण मिला हो, तथा जिसने युवावस्था में विश्व भर के श्रेष्ठतम मंचों पर प्रदर्शन किया हो, जिसने कोटिश: सांगीतिक रचनाओं का निर्माण किया हो, उसकी ही सांगीतिक प्रस्तुतियों से विश्व वंचित रह गया। आकाशवाणी के इलाहाबाद केंद्र पर अनेक वादन-प्रस्तुतियों के ध्वन्यांकन के उपरांत भी, अंगुलियों पर गिनी जाने वाली ध्वन्यांकित कृति ही संस्थान के पास उपलब्ध हैं। Continue reading

कला का कारक: भाव

IMG_0575भारतीय संगीत के बृहद इतिहास के विहंगम अवलोकन पश्चात, उसे आत्मसात कर उसका सार्थक विश्लेषण करने तथा उसके प्रमाणों का सही प्रस्तुतिकरण कर पाने की क्षमता, कितने लोगों में है,  यह  एक महत्वपूर्ण प्रश्न हो सकता है। किसी भी विषय के अंतरस्थ मूल्यों को समझने के लिये, एक विशेष अनुभवसिक्त दृष्टि सिद्ध होने के उपरांत ही उस विषय के आन्तरिक प्रवाह को भली प्रकार विश्लेषित किया जाता है। भारतीय कला, दर्शन और साहित्य में निहित अपरिमित वैचारिक तथ्यों का अध्ययन एवं अनुशीलन अपने आप में एक गंभीर अभ्यासीय प्रक्रिया है जिसमें बाह्य प्रकृति जन्य किसी भी प्रकार के उल्कापातों का कोई स्थान नहीं है। Continue reading

मिश्र बानी: वाद्य स्वातंत्र्य का सूत्र

कला का अस्तित्व मानवीय संवेदनाओं और सृजनेन्द्रिक क्षमताओं के संयोग के परिणामस्वरूप उद्भूत होता है। नैसर्गिक अनुभूति को तराश कर जब मानव उन स्पंदित संवेदनाओं को किसी भौतिक भित्ती पर रचता है तब कला का जन्म होता है। यदि कलाकार के अन्दर स्वयं रसानुभूति नहीं है तो उसके द्वारा प्रदर्शित कला भी निर्जीव ही होगी।

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डा मिश्र     पैंसिलवनिया,1971

सुप्रसिद्ध विचित्र वीणा वादक के रूप में प्रतिष्ठित, डॉ लालमणि मिश्र एक अद्भुत संगीत-सृजनकर्ता थे। सहजता और पूर्णता उनके संगीत का अंग था। उनकी सांगीतिक कार्यक्षमता उनके शास्त्रीय ज्ञान का दर्पण थी साथ ही उन्हें अपने द्वारा बजाए गये प्रत्येक वाद्य की पकड़ और विशिष्टताओं को समझने की अद्भुत क्षमता थी। डॉ. मिश्र एक ध्रुवपद गाायक थे। उन्होंने न केवल उसकी जटिलता को सीखा बल्कि अपनी किशोर अवस्था में ही, उसके विस्तार, आलाप, उपज और विभिन्न प्रकार की लयकारियों को आत्मसात कर इस गायन कला की आत्मा को सिद्ध कर लिया। Continue reading

सितार: एक ऐतिहासिक सत्य – भाग – १ (तथ्य- डॉ लाल मणि मिश्र)

Sitar1भारत में वैदिक युग से आज तक समय समय पर भाषाओं में आमूल परिवर्तन होते रहे हैं। भाषा परिवर्तन के कारण भी विभिन्न प्राचीन वस्तुओं के नये नाम रख लिये जाते हैं। अस्तु, यदि वर्तमान किसी वस्तु के ऐतिहासिक विकास क्रम को समझना है तो सतर्कतापूर्वक उपरोक्त दोनो सम्भावनाओं को ध्यान में रखते हुए छानबीन करनी होगी।

उन्नीसवीं शताब्दी तक संगीतज्ञ का प्रदर्शन क्षेत्र या तो राज दरबार था अथवा मंदिर था। नाद विद्या के श्रेष्ठ विद्वानों का जनसाधारण से निकट का संबंध नगण्य सा था। Continue reading

सितार: एक ऐतिहासिक सत्य- भाग-२

caves1त्रितंत्री वीणा ही जंत्र के नाम से प्रचलित थी इसका बहुत बड़ा प्रमाण संगीत रत्नाकर की कल्लिनाथ टीका है। वे कहते हैं-
“तत्र त्रितन्त्रिकैव लोके जन्त्र शब्दनोच्यते”
                                    (संगीत रत्नाकर,कल्लिनाथ की टीका,वाद्याध्याय- पृष्ठ-२४८)

दूसरा प्रमाण है अबुल फज़ल की ‘अाइने-अकबरी’ जिसमें उन्होंने जन्त्र नामक वाद्य यंत्र का वर्णन करते हुए उसमें कटा तुम्बा लगने, १६ पर्दे होने और पॉच तार लगने की सूचना दी है। Continue reading

राग काल

राग काल निर्धारण के अध्ययन में अध्वदर्शक स्वर परमेलप्रवेशक राग की समझ आवश्यक है।

अध्वदर्शक स्वर

airclip3प्रात:कालीन संधिप्रकाश रागों में शुद्ध मध्यम की प्रबलता के साथ कोमल ‘रे ध’ का प्रयोग बहुलता से होता है। इस समय के कुछ रागों में तीव्र मध्यम का प्रयोग भी होता है। किन्तु शुद्ध मध्यम की अपेक्षा, वह दुर्बल रहता है। ललित, परज, रामकली इसके उदाहरण हैं। उसके बाद दूसरे प्रहर के और तीसरे प्रहर के रागों में ‘रे ध’ कोमल वाले राग और फिर ‘रे ध’ शुद्ध वाले रागों का गायन वादन होता है। Continue reading