सप्तक के स्वरों की स्थापना सर्वप्रथम महर्षि भरत के द्वारा हुई। वे अपने सप्त स्वरों को षड़्ज ग्रामिक स्वर कहते थे। षड़्ज ग्राम से मध्यम ग्राम और मध्यम ग्राम से पुनः षड़्ज ग्राम में आने के लिये उन्हें २ स्वर स्थानों को और मान्यता देनी पड़ी। जिन्हें ‘अंतर गांधार’ और ‘काकली निषाद’ कहा।
महर्षि भरत ने अपने स्वरों को न शुद्ध कहा है न ही विकृत। क्योंकि उनको सभी स्वरों की प्राप्ति षड़्जग्राम की व्यवस्था, मध्यमग्राम की व्यवस्था और उनकी मूर्छनाओं से हो जाती थी। यथा- यदि कोमल ऋषभ की आवश्यकता हुई तो धैवत की मूर्छना से अथवा ऋषभ की मूर्छना से उसकी प्राप्ति हो जाती थी। क्योंकि ध-नी का और रे-ग का अन्तराल द्विश्रुतिक है। धैवत को षड़्ज मानने से नी कोमल ऋषभ हो जाता है।
भरत को किसी भी स्वर अन्तराल को प्राप्त करने के लिये स्वरों को शुद्ध या विकृत कहने की आवश्यकता नहीं थी। बाद के युग में मूर्छना पद्धति से स्वरों को प्राप्त करने की परम्परा टूट गयी। षड़्ज स्थिर हो गया। इस लिये षड़्ज से तार षड़्ज तक जितने भी श्रुति स्थान प्राप्त होते हैं उनमें भरत के अनुसार जो षड़्ज ग्रामिक स्वर स्थान निर्धारित कर दिये गये थे, उन्हें शुद्ध स्वर कहा जाने लगा और अन्य श्रुतियों पर स्थापित स्वरों को विकृत कहा जाने लगा।
शारंगदेव (संगीत रत्नाकर के रचयिता) व उनके बाद के सभी मध्य युग के ग्रंथकारों ने षड़्ज ग्रामिक स्वरों का स्थान वही माना है और उन स्वरों को शुद्ध स्वरों की संज्ञा दी है। किन्तु अन्य श्रुतियों पर स्थापित स्वरों के नाम कहीं एक से और कहीं भिन्न माने गये हैं।
आधुनिक विद्वानों का मत है कि मध्य युग के शास्त्रकारों का भरत की श्रुतियों पर स्वर स्थापना अनुमान के आधार पर था। सम्भवतया ऐसे शास्त्रकार नहीं हुए जो स्वयं संगीतज्ञ होते। भरत ने तो पहले षड़्ज ग्रामिक स्वर व्यवस्था बताकर तब चतुःसारणा के माध्यम से श्रुतियों की स्थापना की और उन्हें स्वर योग्य घोषित किया। किन्तु संगीत रत्नाकर और उसके बाद के शास्त्रकारों ने २२ तारों पर २२ श्रुतियों की स्थापना, बिना किसी संवाद सिद्धान्त के ही कर ली। शारंगदेव ने इन २२ तारों को मिलाने के लिये कहा है कि पहला तार सबसे नीचे की ध्वनि में मिला ले व उसके बाद के तार ‘मनाक उच्च ध्वनि’ में मिलाये। सभी संगीतज्ञ समझ सकते हैं कि इस विधि से भरतोक्त षड़्ज ग्राम और उनकी श्रुतियाँ कभी प्राप्त नहीं हो सकती हैं। लेकिन अध्ययन की दृष्टि से मध्य युग के शास्त्रकारों के द्वारा स्थापित किये गये स्वरों को देखना और समझना पड़ता है। पं ओंकारनाथ ठाकुर ने अपनी पुस्तक ‘प्रणव भारती’ में यह स्पष्ट किया है कि किस प्रकार वीणा पर स्वरों की स्थापना करते वक्त रामामात्य ने भयानक भूले की हैं। अहोबल व श्रीनिवास के द्वारा वीणा पर स्वर स्थापित करते वक्त ऋषभ धैवत के संबंध में जो गोल मोल बात की है वह भी अकारण नहीं है। मध्य युग के शास्त्रकारों ने शुद्ध स्वरों के अतिरिक्त अपने विकृत स्वरों की स्थापना हेतु – ‘कौशिक, काकली, च्युत, अच्युत, विकृत, साधारण, अन्तर, मृदु, लघु, वराली आदि संज्ञाओं का प्रयोग किया है। पं भातखण्डे जी ने मध्य युग के इन ग्रंथकारों द्वारा श्रुति स्वर स्थापना को देख कर ही सम्भवतया श्रुतियों को समान माना है। किन्तु अब यह बात प्रो. ललित किशोर सिंह, डॉ लाल मणि मिश्र, पं ओंकारनाथ ठाकुर, आचार्य बृहस्पति इत्यादि द्वारा सिद्ध कर दी गयी है कि श्रुतियाँ समान नहीं हैं।
मध्य युग के सभी ग्रंथकारों में अहोबल व लोचन को स्वर स्थापना में अधिक महत्ता दी गयी है । लेकिन वहाँ भी ऐसा मालुम नहीं होता है कि इन लोगों ने श्रुतियों को सुन कर और उसके प्रयोग को प्रचलित रागों में देख कर उनका नाम निर्धारित किया।
नोट:- मध्य काल के शास्त्रकारों ने श्रुतियों को संख्या माना और शुद्ध स्थान वही रखा जो षड़्ज ग्राम का है। अन्य श्रुति स्थानों पर कुछ भिन्नता के साथ अपनी इच्छानुसार विकृत स्वरों की स्थापना की। पं भातखण्डे जी का कथन है कि मध्य युग के ग्रंथकार श्रुतियों के पचड़े में न पड़ श्रुति संख्या व स्वरों में उनका विभागीकरण श्रद्धापूर्वक कर आगे बढ़ जाते थे।
आधुनिक युग में सर्वप्रमुख ग्रंथकार व शास्त्रकार पं भातखण्डे हुए हैं। उन्होंने संगीत क्षेत्र में बहुत काम किया है। उन्होने अपने जीवन में इतना सब कुछ करते हुए भी प्राचीन व मध्य युगीन शास्त्रों का गहरा अध्ययन किया संगीत संबंधी अनेक विषयों को उन्होने नियमित और व्यवस्थित किया। किन्तु उनकी दृष्टि में भरत और शारंगदेव की स्वर व्यवस्था टूट चुकी थी और नई स्वर व्यवस्था स्थापित करनी थी। इस समय तक बिलावल को शुद्ध स्वर सप्तक माना जाने लगा था। जब कि मध्य काल के सभी ग्रंथों का शुद्ध स्वर सप्तक काफी सरीखा था। इस समस्या का हल उन्होंने प्रत्येक स्वर की अंतिम श्रुति पर स्वर स्थापना की प्राचीन परंपरा के स्थान पर प्रत्येक स्वर की जितनी श्रुतियाँ हैं उनकी पहली श्रुति पर स्वर की स्थापना कर के समस्या का समाधान किया।
पिछले सत्तर अस्सी वर्षों में प्रो ललित किशोर सिंह, डॉ लालमणि मिश्र, पं ओंकारनाथ ठाकुर, आचार्य बृहस्पति एवं अनेक दूसरे विद्वानों ने
१) गणित के आधार पर
२) कम्पन संख्या के आधार पर
३) प्राचीन भारतीय सम्वाद सिद्धान्त के आधार पर
यह सिद्ध कर दिया है कि भरत की श्रुतियां समान नहीं थीं वो तीन प्रकार की थी-
(क) पाँच सेवर्ट (5 savart)
(ख) अट्ठारह सेवर्ट (18 savart)
(ग) तेईस सेवर्ट (23 savart)
मूर्छना पद्धति के समाप्त हो जाने के बाद भी भारतीय संगीत के स्वर अन्तराल नहीं बदले हैं। वो वही हैं जो भरत के समय में थे। भारतीय संगीत में परिवर्तन राग रूपों में, गान शैली में तथा वाद्यों के स्वरूपों में होता रहा है किन्तु सम्वाद सिद्धान्त, नव – त्रयोदश श्रुत्यान्तराल और स्वयम्भू गांधार आदि के स्थान न बदले हैं न ही बदलेंगे।
गहन किंतु सहज, बोधगम्य एवं बोधदायक, स्पष्ट, और भ्रांति निवारक। धन्यवाद।
Wonderful