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राग काल

राग काल निर्धारण के अध्ययन में अध्वदर्शक स्वर परमेलप्रवेशक राग की समझ आवश्यक है।

अध्वदर्शक स्वर

airclip3प्रात:कालीन संधिप्रकाश रागों में शुद्ध मध्यम की प्रबलता के साथ कोमल ‘रे ध’ का प्रयोग बहुलता से होता है। इस समय के कुछ रागों में तीव्र मध्यम का प्रयोग भी होता है। किन्तु शुद्ध मध्यम की अपेक्षा, वह दुर्बल रहता है। ललित, परज, रामकली इसके उदाहरण हैं। उसके बाद दूसरे प्रहर के और तीसरे प्रहर के रागों में ‘रे ध’ कोमल वाले राग और फिर ‘रे ध’ शुद्ध वाले रागों का गायन वादन होता है। Continue reading

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निबद्ध- अनिबद्ध गान (Nibaddh – Anibaddh Gan)

निबद्ध- अनिबद्ध गान: व्याख्या, स्वरूप, भेद

निबद्ध – अनिबद्ध की व्याख्या प्राचीन ग्रंथों से लेकर आधुनिक काल तक होती रही है। निबद्ध -अनिबद्ध विशेषण हैं और ‘गान’ संज्ञा है जिसमें ये दोनों विशेषण लगाए जाते हैं। निबद्ध – अनिबद्ध का सामान्य अर्थ ही है ‘बँधा हुआ’ और ‘न बँधा हुआ’, अर्थात् संगीत में जो गान ताल के सहारे चले वह निबद्ध और जो उस गान की पूर्वयोजना का आधार तैयार करे वह अनिबद्ध गान के अन्तर्गत माना जा सकता है। वैसे निबद्ध के साथ आलप्ति और अनिबद्ध के साथ लय का काम किया जाता रहा है। Continue reading

जाति लक्षण (Characteristics of Jati)

भारत में शास्त्रीय संगीत की परंपरा बड़ी प्राचीन है। राग के प्रादुर्भाव के पूर्व जाति गान की परंपरा थी जो वैदिक परंपरा का ही भेद था। जाति गान के बारे में मतंग मुनि कहते हैं –

“श्रुतिग्रहस्वरादिसमूहाज्जायन्त इति जातय:”

अर्थात् – श्रुति और ग्रह- स्वरादि के समूह से जो जन्म पाती है उन्हें ‘जाति’ कहा है।

जिस प्रकार आधुनिक समय में राग और उसके दस लक्षण माने जाते हैं वैसे ही जाति गान के निर्माण में दस लक्षणों का होना आवश्यक समझा जाता था। वास्तव में मूलरूप से प्राचीन जाति लक्षण ही थे जिसके आधार पर ही आधुनिक  राग लक्षण का निर्माण किया गया।  भरत के नाट्यशास्त्र में ‘जाति’ का ही विशेष वर्णन मिलता है। किसी स्वर समूह से किस प्रकार ‘जाति’ का ढाँचा कैसे बनता है इस पर विचार कर भरत ने ‘जाति’ के दस लक्षण बताये हैं। इन लक्षणों को पाँच जोड़ों के रूप में देखा जा सकता है। Continue reading