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सप्तक के स्वरों की स्थापना

IMG_20180525_202010सप्तक के स्वरों की स्थापना सर्वप्रथम महर्षि भरत के द्वारा हुई। वे अपने सप्त स्वरों को षड़्ज ग्रामिक स्वर कहते थे। षड़्ज ग्राम से मध्यम ग्राम और मध्यम ग्राम से पुनः षड़्ज ग्राम में आने के लिये उन्हें २ स्वर स्थानों को और मान्यता देनी पड़ी। जिन्हें ‘अंतर गांधार’ और ‘काकली निषाद’ कहा।

महर्षि भरत ने अपने स्वरों को न शुद्ध कहा है न ही विकृत। क्योंकि उनको सभी स्वरों की प्राप्ति षड़्जग्राम की व्यवस्था, मध्यमग्राम की व्यवस्था और उनकी मूर्छनाओं से हो जाती थी। यथा- यदि कोमल ऋषभ की आवश्यकता हुई तो धैवत की मूर्छना से अथवा ऋषभ की मूर्छना से उसकी प्राप्ति हो जाती थी। क्योंकि ध-नी का और रे-ग का अन्तराल द्विश्रुतिक है। धैवत को षड़्ज मानने से नी कोमल ऋषभ हो जाता है।

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जाति लक्षण (Characteristics of Jati)

भारत में शास्त्रीय संगीत की परंपरा बड़ी प्राचीन है। राग के प्रादुर्भाव के पूर्व जाति गान की परंपरा थी जो वैदिक परंपरा का ही भेद था। जाति गान के बारे में मतंग मुनि कहते हैं –

“श्रुतिग्रहस्वरादिसमूहाज्जायन्त इति जातय:”

अर्थात् – श्रुति और ग्रह- स्वरादि के समूह से जो जन्म पाती है उन्हें ‘जाति’ कहा है।

जिस प्रकार आधुनिक समय में राग और उसके दस लक्षण माने जाते हैं वैसे ही जाति गान के निर्माण में दस लक्षणों का होना आवश्यक समझा जाता था। वास्तव में मूलरूप से प्राचीन जाति लक्षण ही थे जिसके आधार पर ही आधुनिक  राग लक्षण का निर्माण किया गया।  भरत के नाट्यशास्त्र में ‘जाति’ का ही विशेष वर्णन मिलता है। किसी स्वर समूह से किस प्रकार ‘जाति’ का ढाँचा कैसे बनता है इस पर विचार कर भरत ने ‘जाति’ के दस लक्षण बताये हैं। इन लक्षणों को पाँच जोड़ों के रूप में देखा जा सकता है। Continue reading