सप्तक के स्वरों की स्थापना सर्वप्रथम महर्षि भरत के द्वारा हुई। वे अपने सप्त स्वरों को षड़्ज ग्रामिक स्वर कहते थे। षड़्ज ग्राम से मध्यम ग्राम और मध्यम ग्राम से पुनः षड़्ज ग्राम में आने के लिये उन्हें २ स्वर स्थानों को और मान्यता देनी पड़ी। जिन्हें ‘अंतर गांधार’ और ‘काकली निषाद’ कहा।
महर्षि भरत ने अपने स्वरों को न शुद्ध कहा है न ही विकृत। क्योंकि उनको सभी स्वरों की प्राप्ति षड़्जग्राम की व्यवस्था, मध्यमग्राम की व्यवस्था और उनकी मूर्छनाओं से हो जाती थी। यथा- यदि कोमल ऋषभ की आवश्यकता हुई तो धैवत की मूर्छना से अथवा ऋषभ की मूर्छना से उसकी प्राप्ति हो जाती थी। क्योंकि ध-नी का और रे-ग का अन्तराल द्विश्रुतिक है। धैवत को षड़्ज मानने से नी कोमल ऋषभ हो जाता है।